आम चुनाव 2019 के दो चरण समाप्त हो चुके हैं और अब चुनावी कारवां त्रितये चरण के और बढ़ चूका है । राजनैतिक दल कोई भी हो, मतदाताओं को रिझाने के लिए वादों की झड़ी लगाने में किसी ने कसर नहीं छोड़ी है ।अब तक के चुनावी वादों का हश्र देख, मतदाताओं को नेताओं के इन वादों-दावों पर भरोसा नहीं रह गया है। इनका स्पष्ट कहना है कि नेता जी! वादे वही करें जो पूरे कर सकें। खोखली बयानबाजी अब नहीं चलेगी। अगर विकास के वादे करते हों, तो उन्हें पूरा करने का तरीका भी बताओ। वोटरों को लुभाने के चक्कर में बयानबाजी की जो होड़ इन दिनों नेताओं में लगी है, उसे लेकर भी मतदाता खासे नाराज हैं। जनता शांत है और साथ ही निश्चय भी कर चुकी है की उन्हें इस बार किसे अपना मत देना है। आम जनता से बात करने के बाद उनका दर्द और खुशी दोनों साफ झलकता है । वे न केवल भारतीय लोकतंत्र की गिरती सेहत पर चिंता व्यक्त करते हैं बल्कि उसे सुधारने के लिए वोट से दवाई करने का भी रास्ता तलाश ते नजर आ रहे हैं ।
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लच्छेदार बातों से ठगी जाती है जनता
कौशल शर्मा - हल्की सी बारिश में मोहल्ले की गलियों में पानी जमा हो जाता है। पिछले 20-25 साल से यह समस्या ज्यों की त्यों है। पिछली बार लोकसभा चुनाव में वोट मांगने जब नेता जी के प्रतिनिधि आए थे, तब भी हम लोगों ने मेन होल ठीक करवाने को कहा था। परंतु नहीं हुआ।
राकेश रंजन - वर्ग विशेष को खुश करने के लिए ये नेता जिस स्तर की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह चिंताजनक है। अभद्र बयानबाजी रोकने के लिए कड़े नियम बनाए जाएं। मतदान अनिवार्य होना चाहिए।
पवन कुमार- सिस्टम को हम सभी कोसते हैं लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि वोट देना हमारा कर्तव्य भी है ।
ममता श्रीवास्तव - चुनाव के दौरान नेता लोग वादे तो खूब करते हैं। जरूरी है कि इनके वादे पूरे कितने हुए इसकी समीक्षा की जाए। सांसदों की जवाबदेही तय की जाए।
इंदिरा - आम जनता को अपने नेता से एक उम्मीद रहती है लेकिन हर बार धोखा ही मिलता है। इस बार भी वोट देंगे और देखते हैं क्या होता है। इस बार माहौल पहले से बेहतर जरूर है। विकास की बातें खूब हो रही हैं।
अशोक शाह-जातिवाद के जिस चंगुल में हम फंसे हैं उससे हमें निकलना होगा। नेताओं के बयानबाजी में न फंसकर हमें अपने सोच-समझ के हिसाब से वोट करना होगा।
गोलू - चुनाव से पहले नेता चक्कर काटने लगते हैं, जीतने के बाद छूमंतर हो जाते हैं। पिछले 20-25 सालों से जलजमाव जैसी समस्या का निदान नहीं हो पाया है। पांच साल बाद ही नेता नजर आते हैं।
तकरीबन 80 फीसदी आम भारतीयों के लिए रोज़-ब-रोज़ का भ्रष्टाचार, कुप्रशासन और दैनिक सुविधाओं का अभाव सबसे बड़ी समस्या है लेकिन चुनावों के दौरान या अन्यथा भी वर्तमान राजनीतिक विमर्श में इन मुद्दों की कोई ख़ास चर्चा नहीं है ।
सिस्टम बदलने का कोई शार्टकट नहीं है!
इन विमर्शों में आम जनता के रोज़मर्रा के जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों और राजनीति में अपराध तथा भ्रष्टाचार के बढ़ते प्रभाव का बेहद अभाव है.विभिन्न दलों के घोषणापत्रों और नेताओं के वादों का निरीक्षण करें तो देखेंगे कि 'व्यापक' दृष्टिकोण 'सूक्ष्म' दृष्टिकोण पर हावी है । राजनीतिक दल और उनके नेता अक्सर जनता से पानी, बिजली, सड़क और रोज़़गार का वादा करते देखे जाते हैं लेकिन वो यह नहीं बताते कि सत्ता में आने के बाद इन वादों को हकीकत में किस तरह बदलेंगे ।
आम जनता की मुश्किल
आम जनता को सबसे ज्यादा प्रभावित करती है वो है विवाह, जन्म और मृत्यु प्रमाण-पत्र जैसी चीज़ों क न मिलना या फिर स्कूल और अस्पताल में प्रवेश न मिलना. ग़ैर-कानूनी तरीकों का सहारा लिए बग़ैर ड्राइवरी का लाइसेंस बनाना या घर की रजिस्ट्री कराना नाकों चने चबाने जैसा है. घूस दिए बिना या निचले स्तर की बाबूगिरी से पार पाए बगैर जमीन-जायदाद का स्थानांतरण, ज़मीन, मकान, फ़्लैट की रजिस्ट्री इत्यादि कराना संभव नहीं है ।
इन सेवाओं के लिए बाबूओं की मुट्ठी गर्म करने की मजबूरी आम आदमी का जीवन नर्क बना देती है क्योंकि अक्सर लोग अपने काम से छुट्टी निकालकर इन सेवाओं से जुड़ों कार्यालयों में जाते हैं ।
यहाँ तक कि बैंक का लोन चुकाने में घूस की ख़बरें भी आम हैं. बैंक के एजेंट और अधिकारियों के ख़िलाफ़ पर्याप्त शिकायतें सुनने को मिलती हैं।
गरीबों और वंचितों तबके की सहायता के लिए चलाई जा रही ढेरों केंद्रीय परियोजनाएँ हैं लेकिन इन योजनाओं के जमीनी स्तर पर लागू करने को लेकर हमेशा शिकायत आती रहती है. हालाँकि कुछ अधिकार आधारित अधिनियमों के पिछले कुछ सालों में लागू होने से कुछ सेवाओं को कुछ नागरिकों को मिलने का मजबूत आधार तैयार हुआ है ।
समय की मांग
समय की मांग है कि आम आदमी को त्वरित और प्रभावी सेवा मिल सके लेकिन राजनीतिक दलों के पास न तो समय है, न ही नीयत और न ही कोई तरीका ऐसा तरीका है जिससे वो आम आदमी का जीवन आसान बना सकें ।
प्रशासनिक सुधार, ख़ासतौर पर निचले स्तर की बाबूगिरी में, और पुलिस सुधार से रोज़मर्रा की कई शिकायतें हल हो सकती हैं लेकिन ऐसा लगता नहीं कि राजनीतिक तबके को इसमें कोई रुचि है. क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल सत्ता की बागडोर ढीली नहीं करना चाहता. सत्ता पर लगाम कसे रहने के लिए वफादार, आज्ञाकरी और पक्षपातपूर्ण लालफीताशाही की ज़रूरत होती है ।
जनता इस चुनाव में पिछले चुनावों में किये गए उनसे छलावे से सिख ले चुकी है और इस बार ये तय कर चुकी है की इस बार डोंग नहीं चलेगा वोट उसी को मिलेगा जो विकाश करेगा और आम जन की जरूरतों को पूरा करेगा ।
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